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चीखता वीरान किला भाग 2

"तृषा....." हमने फिर से एक डरावना सपना देखा। सुबह हो चुकी थी मगर हमारी आंखों से, हमारे मन से वह रात निकल ही नहीं पा रही थी जब उसने हमारी तृषा को जान से मार दिया था। 

"बिहान बेटा उठ गए तुम" पापा ने कमरे में आते हुए कहा। तृषा के जाने के बाद से पापा ही हमारे लिए सुबह की चाय लेकर आते थे। आश्चर्य है जब तक तृषा थी हम उसके चंचल स्वभाव से चिढ़ते थे और आज जब वह साथ नहीं है तो उसकी वही सारी बातें हमें याद आती हैं। उसका हर सुबह हमारे लिए चाय लाना फिर सारा दिन अपनी बातें बताना जिन्हें हमने कभी ध्यान से सुना ही नहीं। तृषा के जाने के बाद से हमने अमन (अपने दोस्त) से भी कुछ दूरी बना ली थी, शायद हम खुद से भी दूर हो गए थे।

"जी पापा" हम कुछ और कहने की हालत में नहीं थे। चीखते वीरान किले में हमारी तृषा की आखिरी चीख आज लगभग तीन साल बाद तक हमारे कानों में गूंजती थी।

करीब दस बजे हम ऑफिस पहुंचे। अब ऑफिस आना भी सुकून नहीं देता था। जिस नाम और काम के कारण हमने कभी तृषा पर ध्यान नहीं दिया आज वह नाम तो है मगर तृषा नहीं है। काश उस दिन तृषा ने हमें बचाने की कोशिश में अपनी जान दांव पर न लगाई होती। काश हमारी तृषा हमारे साथ होती। हम सब सोचते हुए अपने कैबिन की ओर आगे बढ़ते जा रहे थे। न जाने क्यों उस दिन तृषा बहुत याद आ रही थी। उस दिन ऑफिस में हमारा बिल्कुल भी मन नहीं लगा, हम जल्दी ही घर लौट जाना चाहते थे। रास्ते में थे हम जब हमारा ध्यान सड़क से बिल्कुल हट चुका था। कभी हमें, सुबह सुबह भीगे बालों से हमारे चेहरे पर पानी झड़काती हुई तृषा याद आ रही थी तो कभी उदयगढ़ के महल में पागलों की तरह भागती दौड़ती उछलती कूदती तृषा याद आ रही थी।

"आआआआ......" किसी लड़की की दर्दभरी चीख हमारे कानों में पड़ी। उफ्फ हमने किसी को टक्कर मार दी थी। हम तुरंत अपनी कार से बाहर निकले तो देखा लंबे बिखरे बालों वाली एक लड़की ज़मीन पर गिरी पड़ी थी। उसके कपड़े एकदम ढीले ढाले से थे जैसे पेंटर्स, राइटर्स, फोटोग्राफर्स आदि के होते हैं... अजीब से। वह गहरे नीले रंग के जीन्स पर एक लंबा सा ढीला ढाला साधुओं जैसा ॐ लिख हुआ कुर्ता पहने हुई थी। उसके लंबे काले बाल उसके पूरे चेहरे को ढंक चुके थे। हमने उसे उठाने के लिए हाथ आगे बढ़ाया। "दूर बिल्कुल दूर कौनो को हमें हाथ लगाने की जरूरत नाही" उसने खुद ही बिना किसी सहारे के उठते हुए कहा। उसके "हम" पर हमें हंसी आ गई। मुश्किल से बीस साल की रही होगी वह और दुनिया भर की अकड़ लेकर घूम रही थी।

"आपको कहीं चोट तो नहीं आई?" हमने अपनी हंसी रोकते हुए पूछा।

"अरे चोट.... चोट तो हमको बहुतै गहरी लगी है, जे दिखाई दे रहा आपको? दिखा कि नाही? अरे हमाए लिए पूरे दो सौ रुपए के कपड़े लाए थे हम सब तो आप सत्यानाश कर दिए और इससे ज्यादा का चाहिए आपको?" उसने अकड़कर कहा। हम कुछ कह भी नहीं पाए और वह अकड़ती हुई वहां से चली गई। 

हम भी घर पहुंचे तो उसकी अजीब सी भाषा और उसका पहनावा रह रहकर हमारी आँखों के आगे घूम रहा था। 

कुछ दिन बीत गए। ऑफिस में हमें एक रिसेप्शनिस्ट की जरूरत थी और एक महीना हो चुका था मगर कोई ढंग का मिल ही नहीं रहा था। फिर एक दिन हमारे पीए अनुराग ने हमें बताया कि नई रिसेप्शनिस्ट मिल गई है। नाम था उसका वैदेही शुक्ला। उसे दो बजे हमसे मिलना था ताकि एक बार हम भी उसे देख लेते कि वह हमारे ऑफिस में काम करने लायक है भी या नहीं।

आखिर दो भी बजे। वह हमारे कैबिन में आई। हम कुछ फाइल्स में व्यस्त थे। हमने बिना ऊपर देखे ही कम इन कह दिया और वह अंदर आई। 

"गुड आफ्टरनून सर, आय'म वैदेही शुक्ला" उसने अन्दर आते ही कहा। आवाज़ जानी पहचानी सी थी हमने सिर उठकर ऊपर देखा। और आसमान फटने से भी ज्यादा ऊंची आवाज़ में वह चिल्लाई "आप... आप इहां का कर रहे?"

"हमारा ही ऑफिस है यह.... बिहान सिंह चौहान हम ही हैं" हमने शांत रहकर कहा।

"अरे राम हमको इहन काम करना पड़ी है" उसने अपना सिर पीटते हुए कहा।

"आपकी भाषा को क्या हुआ? हमें देखने से पहले तक तो ग़ज़ब की फर्राटेदार शुद्ध अंग्रेजी और हिंदी बोल रही थीं आप?" हमने तंज कसा।

"अरे ऊ का है न आए तो हम थे इहां नौकरी करन मगर हमको दिख गए आप तो हम अपनी भाषा पर आय गए। का है न हो जैसी भाषा समझे उससे ऊ ही भाषा में बात करनी चाहिए।" उसने भी बराबर तंज कसा। वाकई उम्र में छोटी थी मगर ज़बान बहुत बड़ी थी, केंची से भी तेज़।

"ओके आपकी जॉब फाइनल है.... बस आपकी भाषा....." हमने संशय से कहा।

"कनपुरिया हैं हम। भाषा में कनपुरिया लहज़ा है और इहां भाषा का ध्यान रख सकत है, अंग्रेजी और हिन्दी दोनों बहुत अच्छी बोल लेत हैं हम" उसने अकड़ते हुए, घमंड में, अपने ढीले ढाले हल्के हरे कुर्ते की कॉलर ठीक करते हुए कहा।

"आपके कपड़ों के इन हालातों की भी कुछ कहानी होगी?" हमने लगभग मिमियाते हुए पूछा। इतने बड़े एम्पायर के मालिक को एक छोटी सी लड़की ने चुप कर दिया था हद है।

"हमको पसंद है आपको का? अरे नौकरी करने आए हैं गुलामी थोड़े ही" उसने सपाट लहजे में कहा।

"हां अच्छे हैं... चलेंगे" हमने चुपचाप कहा और सोचा यह बला जल्दी टले। वह चली गई।

करीब दो महीने बीत गए। सब कुछ ठीक चल रहा था। वैदेही का अजीब सा व्यवहार हमें हमेशा उलझाए रखता जिससे हम तृषा के बारे में सोचने के लिए अब वक़्त ही नहीं निकाल पाते थे। उस दिन तिथि के हिसाब से तृषा की तृतीय पुण्यतिथि थी। हम कभी उसकी पुण्यतिथि पर ऑफिस नहीं जाते थे लोगों में दान कर दिया करते थे मगर उस दिन हमारे पीए अनुराग ने हमें ऑफिस बुलाया। कह रहा था कोई जरूरी बात है। हम ऑफिस पहुंचे तो कहने लगा "सर वह मिस्टर वर्मा उदयगढ़ का किला देखने के लिए इंसिस्ट कर रहे थे।"

"हम्म हम खुद उन्हें दिखाने जाएंगे उदयगढ़ का किला" हमने कहा। हमने उदयगढ़ का किला बेचने का फैसला कर लिया था। उस भेडियामानव को हमने उसी रात रामावतार काका से का दिया था कि वे उस भेडियामानव को किले के ही गर्भगृह ने हमेशा के लिए दफना दें और उसे हमेशा हमेशा के लिए बन्द कर दें। तृषा को खोकर हमारा दिमाग सुन्न पड़ गया था, हम सब कुछ काका पर छोड़कर आ गए थे। इसीलिए हम उस वेयरवुल्फ को लेकर निश्चिंत थे और उस किले को बेच रहे थे ताकि हमें फिर कभी उदयगढ़ जाते वक़्त उस मनहूस किले को न देखना पड़े जिसने हमारी मां और हमारी तृषा को हमसे छीन लिया था। हम कैबिन में अकेले थे और पुरानी बातें याद कर रो पड़े थे। उसी वक़्त एक कोमल हाथ हमें अपने गालों पर महसूस हुआ। वह वैदेही थी, हमारे आंसू पोंछ रही थी।

"आप रो रहे हैं?" उसने पहली बार हमसे आत्मीयता से बात की थी।

"कुछ ज़ख्म कभी नहीं भरते" हमने शून्य में देखते हुए कहा।

"हम्म शायद कभी नहीं" उसने भी हमारी ही तरह शून्य ने देखकर कहा।

"आप......" हम जो पूछना चाहते थे, वह समझ गई।

"हमारा अपना कोई नहीं। मां बाप तो भगवान ने जन्म लेते ही छीन लिए थे। कानपुर में अपने बाबा के साथ रहते थे हम। वे भी चल बसे तब यहां चाचाजी के पास आ गए मगर यहां आकर पता चला वे किसी "अनजान" को अपने घर नहीं रखते" वैदेही ने कड़वाहट से कहा। फिर खुद ही थोड़ा रुक कर आगे बोली "अपनी पढ़ाई कानपुर में कर रहे थे अब बी ए हो गया था, आगे पढ़ना चाहते थे मगर आर्थिक स्तिथि अच्छी न होने से अब आगे की पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी। जीने की कोई वजह तो नहीं है मगर मरने की हिम्मत भी नहीं है" वैदेही ने शांति से कहा। हम गौर से उसके चेहरे को देख रहे थे। उसके चेहरे पर आई दुख की लकीरें हमसे बेहतर कौन समझ सकता था।

"आपके बारे में जानते हैं हम, अनुराग जी ने बताया था हमें" उसने उसी शांति से कहा।

"हम्म" हम बस इतना ही बोल पाए। इसके बाद दोनों अपने अपने काम में लग गए।

हमेशा की तरह हम शाम को देर से घर पहुंचे थे। हॉल में जाते ही पापा मिले। देखा तो पापा के माथे पर एक एक छोटी सी चोट लगी हुई थी।

"लीजिए अंकल सूप आपको ऐसे सड़कों पर पैदल नाही घूमना चाहिए। जे उमर घूमने की नाही आराम करने की है और आप घूमतै राहत हो का?" किचन से सूप लेकर आती वैदेही पर नजर पड़ते ही हम चुपचाप अपने कमरे में जाने लगे वरना वह फिर चिल्लाती।

"आप..... आप इहां भी पहुंच गए?" उसने फिर बहुत तेज़ी से चिल्लाकर कहा।

"हमारा घर है और कहां जाएंगे?" हमने मुस्कुराते हुए कहा।

"एक मिनट जे अंकल जी आपके पापा हैं?" वैदेही ने आश्चर्य से पूछा।

हूंकारा भरकर हम पापा के पास पहुंचे और उनसे पूछने लगे कि उन्हें वह चोट कैसे लगी तब जवाब वैदेही शुक्ला ने दिया।

"अरे इतनी बड़ी कंपनी के मालिक है अंकल जी मगर इनको सड़कों पर सब्जी खरीदबे का शौक हुइ गया था" उसने इतने अपनेपन से कहा कि जिस लहजे में हम कभी पापा से बात नहीं करते थे उसी लहजे में वैदेही की डांट सुनकर पापा एकदम चुप थे।

"अरे बेटा घर में मन नहीं लगता अकेले अकेले इसलिए चले गए थे" पापा ने लाचारी से कहा।

"आपको अब शादी कर लेनी चाहिए ताकि अंकल जी का छोटे छोटे बच्चों में "मन लगा रहे" मन लगा रहे पर उसने कुछ ज्यादा ही ज़ोर दिया था। पापा को एक और ताना मिल चुका था।

"हम जा रहे हैं अंकल, आप दोबारा हमें सड़कों पर सब्जी खरीदते नहीं दिखने चाहिए" कहकर वैदेही जाने लगी तो पापा ने बड़े प्यार से उसे रोक लिया और खाना खाकर जाने का आग्रह किया तो वह मान गई।

करीब एक महीना बीत गया। इस बीच वर्मा हमसे काफी बार किला दिखाने का आग्रह कर चुका था मगर हमें वक़्त ही नहीं मिल पा रहा था। वैदेही अब हमारी दोस्त थी। एक ऐसी दोस्त जिससे सांत्वना मिलना तो मात्र एक सपना था बस कड़वी कड़वी बातें बोल बोलकर ही हमारा दिमाग खराब रखती थी जिससे हम कभी तृषा को याद करने का भी वक़्त नहीं निकाल पाते थे। 

आखिर एक दिन हम वर्मा के साथ उदयगढ़ के किले के ठीक सामने खड़े थे। 

"वाह बिहान जी बहुत खूबसूरत किला है, आप इसे बेचना क्यों चाहते हैं?" वर्मा ने पूछा।

"बस इसीलिए कि दूरी बहुत पड़ जाती है मुंबई से उदयगढ़ की" हमने टूटे फूटे शब्दों में बात पूरी की।

शाम होने पर हम और वरना अपने महल लौट आए थे। रामावतार काका काफी अच्छे से हम दोनों का खयाल रह रहे थे। शाम को घूमते हुए हम वर्मा को उदयगढ़ के कुछ किस्से सना रहे थे। तभी गाड़ी रुकने कि आवाज़ आई। देखा तो पापा अमन और वैदेही थे। उन लोगों को देखते ही हमारा खून जल गया।

"आप लोगों को यहां आने के लिए किसने कहा?" हमने खीजते हुए पूछा। तब अमन और पापा ने चुपचाप वैदेही की ओर इशारा कर दिया। हम उससे कुछ नहीं कह सकते थे। जानते थे अपनी गलती मानेगी नहीं उल्टे हमें ही चार बातें सुननी पड़ जाएंगी। 

सभी लोग महल में बैठे हुए थे मगर उस मुसीबत को कहां चैन था। पागलों की तरह आंखें फाड़कर पूरे महल में घूम रही थी। उस वक़्त हमें तृषा याद आ रही थी वह भी कभी ऐसे ही पागलों की तरह महल में घूमी थी।

"मुसीबत शांति से बैठ जाओ" हमने वैदेही से कहा तब वह खिसियानी हंसी हंसती हुई बैठ गई। 

रात को हम अपने कमरे में अकेले थे। जहां कभी तृषा के साथ रुके थे आज अकेले खड़े हुए थे। उस वीरान किले को घूर रहे थे। उस किले में रह रहे उस वेयरवुल्फ ने हमसे हमारी मां, हमारी तृषा, हमारी जिंदगी छीन ली थी। तभी एक हल्की खिलखिलाहट का स्वर हमारे कानों में पड़ा। नीचे झांक कर देखा तो वैदेही और अमन थे। हम नीचे पहुंचे और उनकी बातें सुनने की कोशिश करने लगे। वैदेही और अमन हमारी ही बुराइयां कर रहे थे जैसे कि हम हमेशा काम में व्यस्त रहते हैं, अपने दोनों दोस्तों पर ध्यान नहीं देते, एक लड़की भी नहीं देख रहे अपने लिए आदि आदि। पास जाकर जब हमने दोनों के कान एंठे तब दोनों हमें घूरने लगे और एकसाथ बोल "सही ही तो कहा हमने" हम चुप थे। हंसी मजाक ने अपनी पुरानी कड़वाहट भूल रहे थे। शायद इसीलिए वैदेही अमन और पापा को यहां ले आई थी ताकि हम अपनी पुरानी यादों में खो न जाएं। हम तीनो वहीं गलियारे में बैठ गए। हमारी और वैदेही की निगाहें किले की ओर थी और अमन हम दोनों की ओर चेहरा किए हुए किले की ओर पीठ किए हुए बैठा था। अचानक ही वैदेही की आंखे चौड़ गईं। उसकी नज़रों का अनुसरण करते हुए हमने भी उस ओर देखा तो इस बार हमारी भी आंखें चौड़ गईं। किला पीली रोशनी से जगमगा रहा था। हम दोनों मुंह बाए एक दूसरे को देख रहे थे। हम समझ रहे थे कि शायद क्या हुआ होगा मगर कैसे यह हमारी समझ के परे था।

"वहां क्या है?" वैदेही लगभग फुसफुसाई।

"तृषा की मौत ऐक्सिडेंट में नहीं उस किले में रहने वाले वेयरवुल्फ की वजह से हुई थी" हमने सपाट लहजे में कहा मगर हम बहुत गुस्से में थे। 

"व... वेयर.... वेयर क्या" वैदेही ने असमझ से पूछा।

"आपका दिमाग खराब है क्या जो आप सबको यहां लेकर आईं?" हम आखिर वैदेही पर चिल्ला पड़े।

"हमें किसी ने कुछ बताया था क्या? हमें क्या पता कि यहां क्या वेयर है" उसने गुस्से में मगर सहमकर कहा। उसे यह तक नहीं पता था कि वेयरवुल्फ क्या है। अमन सो चुका था जो हम दोनों की आवाज़ों से जाग गया।

"वेयरवुल्फ यानी कि भेडियामानव" इतना कहकर हमने उसे पूरी कहानी बताई कि किस तरह से हमारे पूर्वजों ने मुगलों पर जीत पाने के लिए एक वेयरवुल्फ को जीवित किया और किसी तरह वह धीरे धीरे पूरे उदयगढ़ के लिए मुसीबत बन गया। तब उसे मारने के दो तरीके भी बताए पहला उसे जलाकर नष्ट कर देना और दूसरा उसके सीने में लकड़ी का खंजर घोंप कर उसे कुछ समय के लिए मरणावस्था में पहुंचा देना। हमने उसे बताया कि कैसे हमें उस वेयरवुल्फ से बचाने के लिए तृषा ने अपनी जान दे दी। (पूरी कहानी जानने के लिए पढ़ें चीखता वीरान किला)
सब सुनकर वैदेही का मुंह खुला का खुला रह गया। अमन सब पहले से ही जनता था मगर पापा को कुछ नहीं पता था इसीलिए शायद वे वैदेही के साथ यहां आने के लिए तैयार हो गए थे।

"हमें माफ कर दीजिए बिहान जी, हमें इस बारे में कोई अंदाजा नहीं था" वैदेही ने कहा।

"अब माफी मांगने से होगा भी क्या वैदेही?" हमने निराशा से कहा।

"किसी को कुछ नहीं होगा, भाई तू चिंता मत कर, हम सब साथ हैं तो कोई चिंता नहीं" अमन ने हमारे कंधे पर हाथ रखकर कहा।
अमन ने इतना कहा ही था कि तभी किले में पीली रोशनी और तेज़ हो उठी। उसकी गुर्राहट का स्वर महल की दीवारें कंपा रहा था। उस गुर्राहट को सुनकर पापा भी जाग गए और वे हमसे सब पूछने लगे तब हमने उस दिन तीन साल बाद उनको तृषा की मौत की असली वजह और पूरी बात बताई। वर्मा सब सुन चुका था और हमें कोस रहा था कि हमने उसे किस मुसीबत में डाल दिया साथ ही उसके पैसे भी बर्बाद हो गए। वैदेही यूं भी गुस्से में थी, उसने आव देखा न ताव देखा, एक उल्टे हाथ का तमाचा वर्मा के गाल पर जड़ दिया। हम सब सन्न रह गए। 

"इस मुसीबत के समय भी आपको अपने पैसों की पड़ी है" वैदेही ने ऊंची आवाज़ में कहा।

कुछ ही देर हुई होगी। इतने में महल की एक दीवार कांपने लगी। हम सब स्तब्ध रह गए। वह वेयरवुल्फ किले से बाहर निकल आया था मगर यह तो संभव ही नहीं था। यह हो क्या रहा था। हम सब असमझ की स्तिथि में थे। अचानक ही दीवार गिर पड़ी, हम सबने उसे देखा। वह और भी ज्यादा खतरनाक लग रहा था। करीब दस फुट ऊंचा वह वेयरवुल्फ इंसानी शरीर में घुसा एक भेड़िया था। उसके हाथ, पैर, पंजे सब किसी भेड़िए जैसे थे और धड़ इंसान जैसा। उसके तीखे कंटीले चेहरे पर स्तिथि उसकी पीली आंखों में अजीब सा पागलपन था। उसके तीन इंच लंबे दांत किसी के खून से सने हुए थे, उसके लंबे चौड़े भयानक शरीर को कोई पत्ता भी नहीं ढके हुए था। वह गुर्रा रहा था। उसने अगले ही पल वर्मा पर झपट्टा मारा जो हम लोगों से कुछ आगे खड़ा था। हम सब भागकर हॉल में पहुंचे और दरवाज़ा बन्द कर लिया। हम, वैदेही, पापा और अमन ही थे। रामावतार काका न जाने कहां चले गए थे। वह बाहर से चपर चपर की आवाज़ें निकाल कर वर्मा को खा रहा था और गुर्राए जा रहा था। डर से हम सबकी जान हलक में आ चुकी थी।

"अब तो उसे मारने का खंजर भी नहीं है" हमने डरते हुए कहा। अमन ने आकर हमारे मुंह पर एक तेज़ मुक्का मार दिया।

"साले ऐसी चीज खो देगा तू इसकी मुझे उम्मीद भी नहीं थी" उसने गुस्से और निराशा के मिले जुले भावों से कहा।

"अमन जी आप शांत हो जाइए उन्हें क्या पता था कि यह वापस जिंदा हो जाएगा?" वैदेही डरी हुई थी मगर अमन की तरह उसने अपना मानसिक संतुलन नहीं खोया था। अब हॉल का दरवाज़ा कांपने लगा था। शायद वह वर्मा को खा चुका था। हम सब अपनी जगह जड़ हो चुके थे। 

"ऊपर भागिए" वैदेही ने पापा का हाथ पकड़ा और हम दोनों से कहा। वह पापा को लेकर सीढ़ियों पर बढ़ गई थी। उसके पीछे पीछे हम दोनों भी भागे।

ऊपर पहुंचे तो आवाज़ सुनकर महसूस हुआ वह हॉल का दरवाज़ा तोड़ चुका था और शायद प्रत्येक कमरे का दरवाज़ा तोड़कर हमें ढूंढ़ रहा था।

"बस कुछ ही देर में वह यहां आ जाएगा" एक जानी पहचानी आवाज़ गूंजी।

"काका आप?" हम अपना मानसिक संतुलन खोने की कगार पर पहुंच गए थे।

"हां हम, हमने कितनी नौकरी की आपके परिवार की मगर हमें कुछ नहीं मिला। इसके रहते हम आपको मारकर आपकी सारी दौलत जीत लेंगे" एक भद्दी सी मुस्कुराहट के साथ रामावतार काका ने कहा। हम सभी मुंह बाए खड़े थे।

"अरे दिमाग को ज्यादा जोर मत दीजिए युवराज, तृषा के मारने के बाद हमने उसे कभी गर्भगृह में कैद किया ही नहीं था बस उस वश में कर के किले में ही चुपचाप रहने दिया था और हम ही उसे जानवरों का तो कभी इंसानों का शिकार पहुंचाते रहे। और आपका इंतजार करते रहे कि जिस दिन आप वापस आएंगे हम इसे किले के बंधन से मुक्त कर देंगे और फिर आपकी सारी दौलत हमारी। किले की दीवारों पर मंत्रों से कैद था यह, जब किले कि दीवार ही टूट गई तो यह भी मुक्त हो गया" काका ने घिनौनी हंसी हंसते हुए कहा। इसी बीच वैदेही शांति से चुपचाप बिना आवाज़ किए पापा को लेकर महल की चौथी और अंतिम मंज़िल पर पहुंच गई थी। वह सबसे पहले पापा को सुरक्षित करना चाहती थी। वह लौटी और वापस दूसरी मंज़िल पर आई जहां हम सब खड़े हुए थे। इस बार उसने हमारा हाथ थामा और भागने लगी अमन भी हमारे साथ भागने लगा। रामावतार काका वहीं खड़े होकर डरावनी हंसी हंस रहे थे तभी उनकी चीख हमारे कानों में पड़ी। हम तीसरी मंज़िल की सीढ़ियों पर थे और पलटकर देखा, वह वेयरवुल्फ एक झटके में उनका सर धड़ से अलग कर चुका था और उनके धड़ से निकलते हुए खून को बड़े आराम से पर रहा था। हम तीनो बिना आवाज़ किए ऊपर पहुंच गए। "बुरे कर्मों का ब्यौरा नतीजा, अपना ही सम्मोहन उल्टा पड़ गया" वैदेही ने नफरत से कहा। अचानक सब शांत पड़ गया था। कहीं कोई आवाज़ नहीं आ रही थी। और फिर धीरे धीरे कुछ खुरचने की आवाज़ें बढ़ने लगीं ।घनघोर अंधेरे में इतनी डरावनी आवाज़ सुनकर अमन कि चीख निकल गई। अचानक ही जहां गलियारे में हम खड़े हुए थे वह नीचे से फट गया , उसमें बहुत बड़ा छेद हो गया था। उस छेद से उस वेयरवुल्फ के हाथ ऊपर आए और उसने एक ही झटके में अमन को खींच लिया। गलियारे की ज़मीन का खुरचना, फिर उसका फट जाना और उस छेद में से उस वेयरवुल्फ द्वारा अमन को खींच लेना, सब इतनी जल्दी हुआ कि हम और वैदेही कुछ समझ ही भी पाए। अब अमन की दर्दनाक चीखों से पूरा महल कांप रहा था। हम और वैदेही वहां से तुरंत भागे और एक कमरे की ओर बढ़ गए, हम दोनों ही चौथी मंज़िल पर नहीं जाना चाहते थे ताकि पापा सुरक्षित रहें। हम दोनों एक कमरे में थे, वैदेही ने कमरा अंदर से बन्द कर लिया था। अचानक ही उसकी नजर कमरे में रखी बारूद की ढेरों पोटलियों पर पड़ी और उसकी आंखें चमक उठीं।

"बिहान जी हम उस वेयरवुल्फ को मार सकते हैं, जलाकर नष्ट कर सकते हैं इससे बहुत बड़ा धमाका होगा" वैदेही ने फुसफुसाकर कहा।

हमारा डर अभी भी कम नहीं हुआ था , हमें अब वैदेही की चिंता थी। हमने अपनी जेब से लाइटर निकाला और वैदेही को पकड़ा दिया। आज या तो वह वेयरवुल्फ बचने वाला था या हम और वैदेही। अचानक ही उसके गुर्राने का स्वर हमारे कानों में पड़ा उसने दरवाज़ा तोड़ दिया था और हमारे सामने खड़ा था। उसके हाथों में मांस के टुकड़े थे। वह लार टपकाता हुआ हमारी ओर बढ़ रहा था। अब हम दोनों के पास भागने का कोई रास्ता नहीं था। वैदेही ने कसकर हमारा हाथ पकड़ा और पीछे की दीवार पर बनी खिड़की की ओर बढ़ ने लगी। उसने पीछे देखा खिड़की से ठीक नीचे पूल था। उसने गौर से हमें देखा और अगले ही पल हमें खिड़की से नीचे धक्का दे दिया। हम पूल में गिर रहे थे और इसी बीच हमने कमरे में एक ज़ोरदार धमाके की आवाज सुनी,महल के उस हिस्से में आग धधक रही थी। 

"वैदेही.........." हम पूल में गिर पड़े। अगली सुबह हमें होश आया तो हम और पापा दोनों सुरक्षित थे। पापा महल के दाईं ओर के हिस्से में थे इसलिए उस धमाके और वेयरवुल्फ दोनों से बच गए थे। हमें वैदेही ने इतनी चालाकी से पानी में फेंक दिया कि हम कुछ समझ ही भी पाए। इस बार वह वेयरवुल्फ हमेशा के लिए का चुका था, हमारी सबसे अच्छी दोस्त को हमसे छीनकर जा चुका था........

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